मैथिलीक लोकगीत साहित्य

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मैथिलीक लोकगीत साहित्य

(मैथिलीक लोक साहित्य समस्त भारतीय भाषा मे सर्वाधिक समृद्ध अछि । खास कऽ केँ लोक गीत मिथिलाक कण-कण मे रसल-बसल अछि । जीवनक समस्त संस्कार सँ लऽ कऽ खेती-पथारी, जाँत चलेयवाकाल आ खेत मे काज करऽ समय धरिक जीवनक हर्ष-विषाद, आरोह-अवरोह आदि लोकगीत मे लयबद्ध अछि । समय-समय पर अपन चारित्रिक विशिष्टता आ कर्तव्यनिष्ठता द्वारा अनेकानेक इतिहास पुरुष हमरा लोकनिक लेल प्रेरणास्रोत बनलाह । )

लोकविद्या समस्त विद्याक जननी ओ लोकजीवनक सांस्कृतिक आत्मा थिक, जे मानव जीवनक विकासयात्रा मे वेदविद्याके सारस्वते रूपे उद्‍गमित करबा मे समर्थ भेल । आइ ओ वेदविद्याक समानान्तर प्रवाहित होइत अवशिष्ट अछि । लोकक सम्बन्ध मूलतः निषाद, द्रविड़ ओ किरात मूलक ओ वेदक सम्बन्ध आर्यमूलक जाति-उपजाति सभ सँ रहल अछि । अहि तरहें वैदिक साहित्य मे आर्य एवं आर्येतर संस्कृति सभक समाहार देखना जाइछ । वस्तुतः लोकसाहित्य ओ वैदिक साहित्यक अन्तर सम्बन्ध ओ समानान्तरताक अनुशीलन आवश्यक अछि । मिथिलांचल लोकविद्या ओ वेदविद्या दुनूक जाग्रत भूमि थिक ।

लोकसंस्कृतिक सन्दर्भ मे लोकविद्याक विस्तार लोकधर्म, लोककला ओ लोकसाहित्य मे देखना जाइछ । भारतीय लोकधार्मिक उत्स मूलतः आर्येतर संस्कृति मे अन्तर्निहित अछि । अहि पृष्ठभूमि मे देवीक उपासना आयोजित अर्थात निषाद लोकनिक अवदान थिक मुदा देवोपासना आर्य लोकनिक । एकरा मे मातृमूलक सत्ता अर्थात पितृब्रम्हक । ब्रह्म एकटा अनादि शक्‍तिक केन्द्र बिन्दु थिक, जनिक पूजोपासना केओ माताक करुणा प्राप्त करबाक लेल करैत अछि तँ केओ पिताक स्नेहक लेल । अतः ब्रह्मक कोनो लिंग नहि होइछ । ब्रह्म मूलतः एकटा देव शक्‍ति थिक, तकर विस्तार सृजन, पोषण एवं संहार मे देखना जाइछ । हमरा लोकनिक जीवन चक्र लोकधर्मक धूरी पर आनुष्ठानिक आचार, कलात्मक विन्यास ओ सांस्कृतिक साहित्यिक गरिमा सँ मण्डित अछि । समस्त आनुष्ठानिक आचार, पूजा पाठ, गहवर, स्तुतिगान (भगैत), गाथाचक्र, वाद्य वादन, नृत्य संगीत आदि सँ मण्डित अछि । जकर शाब्दिक अभिव्यंजना लोकसाहित्यक विभिन्‍न विधा सभ मे भेल अछि ।

मिथिलाक ग्राम्य जीवनक मुक्‍त आकाश ओ धरतीक बीच गहन जीवनानुभूति सँ परिपूर्ण गीत, ऐतिहासिक ओ सांस्कृतिक गाथा, जीवन संदेशमे सरल कथा, अनुभवसिद्ध लोकोक्‍ति, बुद्धिमापक बुझौअलि, रहस्यमय मंत्र आदि सँ जे लोकसरस्वती अबतारित होइत अछि, तकरे प्रभावलीक नाम थिक लोकसंस्कृति । मैथिली लोकसाहित्य मिथिलांचलक लोकसंस्कृतिक सारस्वत स्वरूप थिक । अहि लोक, लोकसंस्कृति ओ लोकसाहित्यक तात्विक अभिज्ञान लोक केँ भले नहि हो‍उक, मुदा ओकर उपेक्षा नृत्यवेत्ता, समाजशास्त्री, राजकीय प्रशासन संस्कृतिकर्मी ओ लोकसाहित्यविद नहि कऽ सकैछ, कियेक तँ लोके सँ राष्ट्रीय संस्कृति केँ चेतना प्राप्त होइत अछि । यैह कारण अछि, जे लोक केँ राष्ट्रक अमूल्य निधि मानल जाइछ, अमर स्वरूप मानल जाइछ जकर अनुभूति जे चेतनाक अभिव्यक्‍ति लोकसाहित्य मे भेल अछि । अतः मिथिलांचलक मैथिली लोकसाहित्य राष्ट्रक अमूल्य निधि थिक ।

जँ हिमालयक समस्त सौन्दर्य, कमला-कोसी-बलान, गंगा ओ गण्डकीक हिलोर, हरियर वन-प्रांतर एवं खेत-खरिहानक सुषमा ओ समृद्धि धीरोदात्त ओ धीरललित नायक-नायिका सभक शौर्य-पराक्रम एवं श्रृंगार ओ करुणाक अभिव्यक्‍ति, युग-युगान्तरसँ परम्परित अनुभूतिपूर्ण ओ प्रमाणसिद्ध उक्‍तिसभ, ज्ञानमापक पहेलिकासभक अलावा मुक्‍ताकाश मे तरुण मेघक मलार उत्तरांचलक हिम हवा ओ दक्षिणांचलक धान गेहूँ-गुलाब आदिक सुगंधिकेँ समेटि क लोककंठकेँ समर्पित कऽ देल जाय तँ ओहि कंठ सँ जे स्वर समवेत स्पंदित होयत, ओ होयत मैथिली लोकसाहित्य । अतः हमरा लोकनिक मैथिली लोकसाहित्य ओतबे नैसर्गिक अछि जतेक कोनो वनफूल, ओतवे उन्मुक्‍त अछि जतेक आकाशक चिड़ै, ओतवे सरल-तरल, पवित्र ओ प्रवाहमान अछि जतेक गंगा ओ कमलाक धार ।

भारतक सांस्कृतिक इतिहास मे मिथिला ओ मैथिलीक योगदान महत्वपूर्ण अछि । भारतक जनपदीय लोकसाहित्यक अध्ययन ओ अन्वेषणक परम्परामे मैथिली लोकसाहित्यक सारस्वत भूमिका के जार्ज ग्रियर्सन, राम इकबाल सिंह राकेश, ब्रजकिशोर बर्मा ‘मणिपद्‍म’, डा० जयकान्त मिश्र, पं० राजेश्‍बर झा, डा० पूर्णानन्द दास, डा० अणिमा सिंह, डा० प्रफुल्ल कुमार सिंह ‘मौन’, डा० व्यथित आदि विद्वान लोकनि रेखांकित कयने छथि । तथापि मैथिली लोकसाहित्य महोदधिक मंथनक हेतु एकटा साधन सम्पन्‍न लोकसंस्कृति संस्थानक निर्माण अनिवार्य बुझना जाइछ, कियेक तँ दिन प्रतिदिन सुखाइत अहि लोकसाहित्य सागर केँ वैज्ञानिक ढंग सँ सर्वेक्षण, संकलन ओ अनुशीलनक अपेक्षा अछि । मैथिली गाथागीतक दृष्टिसँ मिथिला ओ मधेसक सीमावर्ती भूभाग बेस उर्वर अछि कियेक तँ सीमावर्ती क्षेत्र धरना बहुल होइत अछि, जकर अनुगायन मैथिली गाथा गीत साहित्य मे भेल अछि । आलोच्य सीमांत भूभाग सलहेस कुसमा, रेसमा-चूहर एवं काजरि-माजरिक रंगभूमि; लोरिक घुघली, धरमा, अमर सिंह, जयसिंह आदिक रणभूमि; दुलरा दयाल, नैका बनियारा, शंभु बनिया आदिक व्यापारिक अभियान क्षेत्र; बावन -बखतौर, कारू भुइयां आदिक गोजर भूमि अछि । ‘लबहरि-कुसहरि’ मिथिला ओ मैथिलीक अभिनव गाथा थिक , जाहिमे उत्तररामचरितक कथा भूमि, वर्णित अछि । गाथा मे सीता वनवास, लव कुशक जन्म, वाल्मीकि आश्रम मे शिक्षा-दीक्षा, ओ रामक सेनाक संग लवकुशक युद्धक गाथा गायन भेल अछि । अहिमे आभिजात्य संस्कृति रुपांकित अछि । मुदा आभिजात्ये संस्कृतिक सलहेस मिथिला-मधेसक सीमांत क्षेत्रक मैथिलीक अपन गाथा थिक । मैथिली लोकसाहित्यक इतिहासक दृष्टिसँ सलहेस ओ गाथा थिक, जाहिमे वन्य संस्कृतिक अवसान ओ मैदानी संस्कृतिक आरंभ देखना जाइछ । अहिमे मिथिला, मगध, नेपाल ओ तिब्बतक सम्बन्ध सूत्र, किरात, मल्ल ओ राजन्य संस्कृति, शैवशाक्‍त ओ बौद्ध धर्म, मालिनी कष्ट, त्रिपुर साधना एवं चक्रपूजनक सांस्कृतिक परिवेश उद्‍घाटित भेल अछि । मैथिली लोकगाथाक चर्चित नायक सलहेस आइ हिमालयक पार प्रदेशसँ गंगा तीर धरिक जनपद मे लोक देवताक रूप मे पूजित छथि ।

मैथिलीक गाथा लोरिकाइन गाथानायक लोरिक यद्यपि लोक देवताक रूपमे पूजित नहि छथि तथापि लेरिकाइनक गाथा ओ लोकनाट्‍यक परम्पराक उल्लेख लोरिक, ज्योतिश्‍वरक ‘वर्णत्‍नाकर’ (चौदहम सदी) मे प्राप्त होइछ । आलोच्य गाथाक नायक लोरिक त्रिकोणात्मक प्रेमक कथाभूमि मे पत्‍नी मांजरी ओ प्रेयसी चनैनक बीच अवस्थित छथि । बनठा चमार लोरिकाइनक खलनायक थिक । सुपौल जिलाक हरदीगड़ मे लोरिकक आराध्य भगवती दुर्गा प्रतिष्ठित छथि जनिक प्रांगण मे युद्धरत लोरिक ओ बनठा चमारक मध्य पृष्ठभूमि मे चनैनक भव्य मूर्ति बनयवाक ओ लोरिक नाचक परम्परा अवशिष्ट अछि । अहि प्रेमगाथा सँ उत्प्रेरित भ’ मुल्ला दाउद ‘चन्दायन’क रचना कयने छलाह । ‘चन्दायन’ सूफी साहित्यक चर्चित काव्य थिक ।

मिथिला बनाम तीरभूक्‍ति हिमालय सँ निःसृत कोसी, कमला, बलान, जीवछ, तिलजुगा, गंगा आदि नदी सभक क्रीड़ा भूमि मानल जाइछ । कमला कें मिथिलांचलक गंगाक आस्पद प्राप्त छनि । ओ नदी देवीक रूपमे पूजित छथि । मैथिलीक अनेक गाथा सभ मे सूर्यक ज्योतिकें म्लान करयवाली दिव्यांगना कमलाक भूमिका सतत प्रवाहित अछि । ‘दुलरा दयाल’क गाथा नदी संस्कृतिक गाथा थिक । ‘दुलरादयाल’ मे कमलांचलक जनपदीय संस्कृति, हिमालय सँ गंगा पार धरिक व्यापारिक अभियान, कोयलावीर, तांत्रिक नृत्य, डाइन कल्ट आदिक नीक अभिव्यक्‍ति भेल अछि । गाथानायक दयाल सिंहक चरित प्रेमक उदारता, साहसिक अभियान, वणिक कौशल, निरभि मानिता आदिक गुण सँ गरिमा मण्डित अछि ।

नैका बनिजारा’ मैथिलीक गाथा मणि थिक । एहि मे राजा-बेपारी, डोम-चण्डाल, घांगड़-बांगड़ बेकाली डकैत आदिक चारित्रिक विशिष्टता सभक संगे पूर्वांचलक व्यापारिक मार्गक स्पष्ट निर्देश भेटैत अछि । ओहि समय नदी मार्ग द्वारा हिमालयक पाद प्रवेश सँ ताम्रलिपि धरि प्रचलित छल । अहिमे नदी मार्गीय व्यापारक राजकीय संरक्षण, जलद सँ संयुक्‍त आतंक, दास-दासीक कीन-बेच, बारह वर्षक दीर्घ अभियान, पारिवारिक ओझराहटि, मणि-माणिक्य ओ स्वर्ण-रत्‍न राशिक माध्यमे व्यापार, वणिक केन्द्र, पड़ाव, हाट-बाट-घाट आदिक संधान पाओल जाइछ । मिथिलांचलक प्रख्यात व्यापारिक संदर्भ मे नैका बनिजाराक अलावा शोभा ओ शंभु बनिजाराक मैथिली गाथा सेहो लोकप्रचलित अछि ।

मैथिली लोकसाहित्यक सर्वाधिक अहि पंचगाथा रत्‍नक अतिरिक्‍त दीना-भद्रीक गाथा मे शोषण-उत्पीड़नक विरुद्ध प्रतिकारक स्वर पहिल बेर मुखर देखना जाइछ । यैह प्रतिकार वसावनक गाथा मे सेहो उपलब्ध अछि । अहि तरहें लोकप्रचलित बखतौर, कारू, विजयमल, कारिख पंजियार, मलही सुलतान, फेकू-दयाराम, गनीनाथ-गोविन्द, रणपाल-धनपाल आदिक गाथा सभ मध्यकालीन मिथिलांचलक ऐतिहासिक अभिलेख बनल अछि ।

लोकगीत लोकसाहित्यक सर्वाधिक चर्चित विधा अछि, जकर विस्तार जन्म सँ ल’ क मृत्युधरि, पावनि-तिहार सँ ल’क धार्मिक अनुष्ठान धरि, घर आंगन सँ ल’ क खेत- खरिहान धरि एवं व्यक्‍तिगत अनुभूति सँ ल’ क’ सामूहिक लोकोत्सव धरि देखना जाइछ । अतः मैथिली लोकगीतक अनंत विस्तार कें अभिलेख बान्हल नहि जा सकैछ । भारतीय लोकगीत साहित्यक परिप्रेक्ष्य मे मैथिली लोकगीतक अनुशीलनसँ अनुरंजित अछि जँ कोनो भिन्‍नता देखना जाइछ तँ भाषा भेद, संस्कार भेद ओ भौगोलिक भेदक कारणें । आर यैह होइछ प्रत्येक जनपदक लोकगीतक विशिष्टता

। उदाहरणार्थ पर्वतांचल ओ हरितांचलक प्राकृतिक पृष्ठभूमि, भाषायी स्वरूप, गायन पद्धति, पूजा प्रक्रिया एवं सांस्कारिक विधान अवश्ये भिन्‍न होयत । राजस्थानक धरती मे जे उष्मा, पंजाब-हरियाणाक धरती मे जे उछाह ओ मस्ती एवं मिथिलांचल धरती मे जे सौकमार्य देखना जाइछ, ओ अन्यत्र दुर्लभ मानल जाइछ ।

मुदा मैथिली लोकगीत साहित्य सोहर ओ मंगलगीत मे जे करुणा, देवता-देवी विषयक गीतमे जे श्रद्धा ओ भक्‍ति, चैतीचांचर ओ मलार गीत मे जे ऋतुजन्य सौन्दर्य ओ सुषमा, गंगा-कमला ओ कोसीगीत मे जे प्रवाह, जँतसार, लगनी ओ बटगमनी गीत मे गार्हस्थ जीवनक उपराग ओ विराग, नेनागीत मे जे निश्छलता, मंत्रगीत मे जे रहस्यात्मक प्रतीक एवं समदाओन गीत मे जे करूणा अभिव्यंजित भेल अछि, ओ अनुपम अछि । मैथिली लोकगीत सभक भाषागत सौकुमार्य, नादगत सौन्दर्य ओ भावगत गरिमा विशिष्ट अछि । मिथिलांचलक सम्पूर्ण जीवन आचार ओ संस्कार मण्डित एवं प्रत्येक संस्कार गीत-नाद सँ अनुप्राणित अछि ।
(Posted 1st June 2011 by BAREL BARABABU)

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