Harimohan Jha :: स्व. हरिमोहन झा (18.09.1908 – 23.02.1984)


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हमारे पूज्य स्व. हरिमोहन झा का जन्म वैशाली जिले के अपने गांव कुंवर बाजितपुर में 18 सितम्बर 1908 ई को हुआ था. वो एक जाने-माने लेखक, दर्शनशास्त्र के व्याख्याता और आलोचक थे. अगर दो पंक्तियों में उनका परिचय देना हो तो एक ऐसा शख्स जो धार्मिक ढकोसलाओं के खिलाफ लिखता थे, खांटी आलोचक थे. इनके पिता का नाम जनार्दन झा “जनसीदन” था जो मैथिली और हिंदी के कवि और लेखक थे. हरिमोहन झा ने भी अपनी ज्यादातर लेखनकार्य मैथिली में ही की है. जिसको बाद में हिंदी और दूसरी भाषाओं में अनुवादित किया गया. अंग्रेजी में इनका रिसर्च है “ट्रेन्ड्स ऑफ लिंग्विस्टिक एनालिसिस इन इंडियन फिलॉसफी”. इनके पिता स्व. जनार्दन झा ‘मिथिला मिहिर’ के सम्पादक थे. वे दरभंगा में रहते थे. ‘मिथिला मिहिर’ मैथिली पत्रिका थी. जिसको दरभंगा महाराज चलाते थे. इस दौरान हरिमोहन झा ने एक बच्चे के तौर पर खांटी मिथिलांचल के संस्कृति को बेहद करीब से देखा. पिता जी के सम्पादक होने का हरिमोहन झा जी को यह फायदा मिला कि उन्हें विद्वानों के साथ बचपन से ही उठने-बैठने का मौका मिला. 1924 में 16 साल की कम उम्र में ही उनका विवाह करा दिया गया. उसी समय उनके पिता जी कलकत्ता चले गए. वहीं नौकरी करने लगे. अपने पिता से दूर रहना हरिमोहन झा के लिए मुश्किल था. 1927 के कंबाइंड स्टेट इंटरमीडिएट एग्जामिनेशन में संस्कृत, लॉजिक और इतिहास विषय के साथ फर्स्ट क्लास फर्स्ट आए. उसके बाद उन्होंने आगे की पढ़ाई पटना कॉलेज से की. उन्होंने इंग्लिश (ऑनर्स) से ग्रेजुएशन किया. हरिमोहन झा ने 1932 में फिलॉसफी में एम.ए. किया. जिसमें उन्होंने बिहार-ओडिशा स्टेट लेवल पर टॉप किया. गोल्ड मेडलिस्ट बने. ग्रेजुएशन के दिनों में हरिमोहन झा ने इलाहाबाद में अपनी कॉलेज की टीम को ऑल इंडिया डिबेट कम्पटीशन में लीड किया और विजेता बने. कॉलेज में हरिमोहन झा के टैलेंट की धूम मचनी शुरू हो गई थी. लेकिन असली खेल शुरू होना अभी बाकी था. हरिमोहन झा को अभी वो सब लिखना था जिससे समाज में हलचल होना था. हरिमोहन झा का शुरू से ही मैथिली भाषा की तरफ ज्यादा रुझान था. पूज्य झा जी सन 1933 में बी एन कॉलेज पटना में प्रोफेसर बने फिर सन 1948 में पटना कॉलेज में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक बने, सन 1953 में पटना विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष बने सन 1970 से 1975 तक यू.जी.सी. रिसर्च प्रोफेसर रहे। इनकी मैथिली कृति 1933 में “कन्यादान” (उपन्यास), 1943 में “द्विरागमन”(उपन्यास), 1945 में “प्रणम्य देवता” (कथा-संग्रह), 1949 में “रंगशाला”(कथा-संग्रह), 1960 में “चर्चरी” (कथा-संग्रह) आई. अभी तक आपके मन में एक पुस्तक का नाम बार बार आ रहा होगा जिसे शायद आपने पढ़ा भी होगा नाम था “खट्टर ककाक तरंग” (व्यंग्य) जो 1948 में आई थी. “एकादशी” ( ग्यारह कथाओं का कथा-संग्रह) का दूसरा संस्करण सन 1987 में आया जिसमें “ग्रेजुअट पुतोहु” के बदले “द्वादश निदान” सम्मिलित किया गया जो पहले “मिथिला मिहिर” में छप चुका था लेकिन किसी संग्रह में नहीं आया था. इसलिए उस संग्रह का नाम “एकादशी” के बदले “द्वादश निदान” रखा गया. श्री रमानथ झा के अनुरोध पर लिखा गया “बाबाक संस्कार” भी इसी संग्रह में है. इनकी पुस्तक “खट्टर काका” का सन 1971ई. में हिंदी अनुवाद आया. इसके अतिरिक्त इनकी कविता संग्रह भी है “हरिमोहन झा रचनावली” जो चार खण्डों में प्राप्य है. जिसका प्रकाशन 1999 ई में हुआ. इनकी आत्मकथा “जीवन-यात्रा” सन 1984 में प्रकाशित हुई. हरिमोहन झा की “जीवन यात्रा” ही एक मात्र पुस्तक है जो मैथिली अकादमी द्वारा प्रकाशित हुआ और इसी ग्रंथ के कारण इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार सन 1985 में (स्वर्गवास के बाद) प्रदान किया गया. साहित्य अकादमी के द्वारा सन 1999 में “बीछल कथा” नाम से श्री राजमोहन झा और श्री सुभाष चन्द्र यादव द्वारा चयनित इनकी कथाओं का संग्रह प्रकाशित हुआ. इस संग्रह में कुछ ऐसी भी कथाएँ हैं जो इसके पूर्व किसी भी संग्रह में नहीं आई थी. इनकी अनेक रचना हिन्दी, गुजराती, मराठी, कन्नड़, तेलुगु आदि भाषाओं में अनुवादित हो चुकी है. हिन्दी में “न्याय दर्शन”, “वैशेषिक दर्शन”, “तर्कशास्त्र”(निगमन), दत्त-चटर्जी द्वारा “भारतीय दर्शन” का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद के साथ इनकी सम्पादित “दार्शनिक विवेचनाएँ” आदि ग्रन्थ प्रकाशित है. अंग्रेजी में इनका शोध ग्रंथ है – “ट्रेन्ड्स ऑफ लिंग्विस्टिक एनेलिसिस इन इंडियन फिलोसोफी”। सन 1984 में इस महात्मा ने इस धरा को छोड़ साकेत के लिए प्रस्थान किया.
प्राचीन युग में विद्यापति मैथिली काव्य को उत्कर्षक के जिस उच्च शिखर पर आसीन किये थे आधुनिक युग में हरिमोहन झा ने मैथिली गद्य को उस स्थान पर पहुँचाया. हास्य व्यंग्यपूर्ण शैली में सामाजिक-धार्मिक रूढ़ि, अंधविश्वास और पाखण्ड पर चोट इनके लेखन की अन्यतम वैशिष्ट्य है. मैथिली में आज भी सर्वाधिक पढ़ी और खरीदी जाने वाली पुस्तक इन्हीं की है.
हमारी ओर से पूज्यवर को कोटिश:नमन
आपका

(राजेश रौशन मिश्र)
Raj Raushan