जनार्दन झा ‘जनसीदन’ (1872 – 20 जून 1951)


अइ कोठीक धान ओइ कोठी:
जनार्दन झा ‘जनसीदन’क ‘निर्दयी सासु’
(मिथिला मिहिर, जून1980/स्मृति-सन्ध्या-1/अखियासल)

जनार्दन झा ‘‘जनसीदन(1872-20जून,1951) क रचना तीन विधामे उपलब्ध अछि- उपन्यास, कविता तथा निबन्ध। डा. जयकान्त मिश्रक अनुसार ‘‘निर्दयी सासु’’ शशिकला; ‘‘कलियुगी संन्यासी’’, ‘‘पुनर्विवाह’’ तथा ‘‘द्विरागम रहस्य’’ उपन्यास थिक। एहिमे ‘‘पुनर्विवाह’’ केँ छोड़ि शेष सभ ‘मिथिला मिहिर’मे धारावाहिक रूपमे प्रकाशित लिखल अछि। ‘‘कलियुगी संन्यासी उर्फ ढ़कोसलान्द’’ केँ डा. मिश्र, डा. दुर्गानाथ झा ‘‘श्रीश’’ तथा डा. अमरेश पाठक उपन्यास लिखने छथि किन्तु प्रो.हरिमोहन झा प्रहसन कहल अछि। पद्य रचनामे ‘‘नीतिपद्यावली’’ प्रकाशित अछि। तकर अतिरिक्त किछु कविता पत्र-पत्रिकामे छिड़िआएल अछि। निबन्धक रूपमे ‘मिथिलाक महत्व’’ तथा ‘‘प्रेम विवेचन’’ सुलभ अछि।
पुरना ‘‘मिथिला मिहिर’’ देखलासँ ज्ञात भेल अछि जे जनसीदनजी पहिने हिन्दीमे लिखब आरम्भ कएल तथा तकर वाद मैथिली दिस अएलाह। जखन कि हिनक समकालीन मैथिल रचनाकार यथा यदुनाथ झा ‘‘यदुवर’’ त्रिलोचन झा, कालीचरण झा, मुंशी रघुनन्दन दास आदि हिन्दी प्रधान ‘‘मिथिला मिहिर’’ मे मैथिलीए मे लिखैत छलाह। मातृभाषा दिस कोना उन्मुख भेलाह तकर उल्लेख तँ नहि देखबामे आएल अछि, किन्तु हमर अनुमान अछि जे निम्न तीन कारणें जनसीदनजी मैथिलीमे लिखब शुरू कएने होएताह-
1. हिन्दीक विस्तारवादी मोनिमे मातृभाषा मैथिलीकेँ गरगोटिया देबाक चक्रचालिसँ आघात लागल होएतनि।
2. प्रचुर मात्रामे मौलिक आ अनुवाद साहित्यसँ हिन्दीक भंडारकेँ भरलो पर ओहन सम्मान नहि अनुभव कएने होएताह जे मोजर बिहारक बाहरक हिन्दीक साहित्यकारकेँ भेटैत छलनि। तथा
3. जनसीदनजी तथा महावीर प्रसाद द्विवेदीक बीच भेल पत्राचारसँ स्पष्ट होइछ जे द्विवेदी जी मैथिल राज-दरवारसँ अपन पत्रिका ‘सरस्वती’क लेल चन्दा प्राप्त करबाक निमित जनसीदनजीक परिचयकेँ भजबैत छलाह। जकर भान जनसीदनजीकेँ भए गेल होनि। आ से सब मिलि जनसीदनजीकेँ मैथिली दिस उन्मुख कए देलक। हमर एहि निष्कर्षक आधार थिक पं. जीवछ मिश्रक कटु अनुभव। पं. जीवछ मिश्र सेहो पहिने हिन्दीमे लिखैत छलाह। उपेक्षा भेला पर ‘‘सरस्वती’’ एवं ‘‘माधुरी’’क वहिष्कारक घोषणा कएल। एहि प्रसंग जीवछ मिश्र स्पष्टतः लिखने छथि-‘‘एहि प्रकार हिन्दी मध्य किछुओ लिखबासँ नहि लिखबे श्रेयष्कर बूझल (‘रामेश्वर’)। एहि स्थितिक पुष्टि डा. ग्रियर्सन द्वारा कएल गेल ‘‘रामेश्वर’’क पुस्तकक समीक्षासँ सेहो होइछ। पं. जीवछ मिश्र जकाँ जनसीदनजी हिन्दीमे रचना नहि करबाक शपथ लेल वा नहि, से तँ ज्ञात नहि अछि, किन्तु मैथिलीमे रचना करबा लेल प्रवृत्त भेलाह तथा विभिन्न भाषा साहित्यिक परिचयसँ प्राप्त अनुभवसँ मैथिली भाषा साहित्यकेँ लाभान्वित कएल। एही प्रवृत्तिक परिणति थिक ‘‘निर्दयी सासु’’ जकर धारावाहिक प्रकाशन’’ मिथिला मिहिर’’क 17 अक्टूबर 1914 सँ भेल तथा 28 नवम्बर 1914 क अंक मे समाप्त भेल। (आब पुस्तकाकार प्रकाशित-निर्दयी सासु एवं पुनर्विवाह सं. डा. रमानन्द झा ‘‘रमण’’, वर्ष,1984)
निर्दयी सासुक कथा-वस्तु
‘निर्दयी सासु’ शब्द सुनलहिसँ बूझा जाइछ जे पुतहुपर अत्याचार कएनिहारि कोनो पराक्रमी सासुक एहिमे कथा होएत। से सरिपहुँ पं. अयोध्यानाथ मिश्रक पत्नी अनूपरानी ओही कोटिक एक सासु छथि।
शिव नगरक ज्योतिषी चिन्तामणि झा कतेको वर्षधरि पश्चिमक कोनो राजधानीमे रहलाक बाद गाम घुमैत छथि। ज्योतिषीजी सुधारवादी आन्दोलनसँ नीक जकाँ परिचित छथि तथा स्त्री-शिक्षाक मर्म बुझैत छथि। अपन कन्या शारदाकेँ पढ़ेबा-लिखेबामे खूब रुचि लैत छथि। यशोदा मन लगा केँ मिथिलाक्षर आ देवाक्षर सीखि लैछ। माय तथा पितामहीक संग टोल-पड़ोसक बूढ़ी लोकनिकेँ बैसा केँ रामायण सस्वर पाठ कए लैत अछि।
यशोदा नओ वर्ष होइतहिं, ज्योतिषीजीकेँ कन्यादानक चिन्ता भए जाइत छनि। यशोदाक हेतु योग्यवर तकबा लेल ओ खूब प्रयास करैत छथि। मुदा एकोटा कथा चित्त मे बैसैत नहि छनि। कतहु बर नीक तँ जाति नहि, जाति तँ, आस्थापता नहि। पत्नीक उपराग सुनैत छथि। अन्तमे हारि-थाकि सहबाजपुरक पिसिऔत लक्ष्मीदत्त झाक संग सभा जाइत छथि। ओतहु खूब प्रयास करैत छथि। परंच एकहिठाम वरगुण, जाति आ धन नहि भेटैत छनि। एही बीच वसुहामक एकटा घटक घूटर झा उपस्थित होइत छथि। हिनकहि प्रयाससँ वैरमपुरक अयोध्यानाथ मिश्रक अङरेजी पढ़ैत बालक सीतानाथ मिश्रमे बिना कोनो लेन-देनक कथा उपस्थित होइछ। अपंजीवद्ध रहलाक कारणें पिसिऔत विरोध करैत छथिन्ह। ओ कथा भङठेबाक अपना भरि खूब प्रयास करैत छथि तथापि वरगुण देखि ज्योतिषी कथा स्थिर कए लैत छथि। एहिपर पिसिऔत तमसा केँ चल जाइत छथिन। वर आ वरियातीक संग ज्योतिषी गाम आबि कन्यादान सम्पन्न करैत छथि।
पढ़लि-लिखलि पुतहु पाबि अयोध्यानाथ मिश्रकेँ खूब प्रसन्नता होइत छनि। पुतहुक रूप गुण सचनि प्रसन्नता तँ अनूप रानीकेँ सेहो होइत छनि, मुदा बेटाक विवाहमे टाका हाथ नहि अएबाक पर्याप्त दुख छनि। तीन वर्षक वाद दुरागमन भेला पर मन माफिक भार नहि अएलाक कारणें यशोदाक प्रति सासुक व्यवहार रूच्छ भए जाइछ। ओ बेटा-पुतहुकेँ गप्प करैत सुनि अथवा एकठाम देखि लोहछि उठैत छथि। सदिखन चिन्ता रहैत छनि जे बेटा किनसाइत पुतहुक वशमे नहि भए जाए। पढ़ाइ समाप्त कए सीतानाथ नौकरी लेल बाहर जाइत छथि। सीतानाथक अनुपस्थितिमे सासु आ ननदिक अत्याचार यशोदा पर बढ़ि जाइत छैक।
यशोदाक नैहरिमे लोक पढ़ल-लिखल छल। पढ़बा-लिखबाकेँ नीक बुझैत छल। मुदा, सासुरमे स्थिति प्रतिकूल छैक। पढ़ब-लिखब वर्जित कए देल गेलैक। पोथी पढ़बा लेल बाहर करए तँ ननदि उपद्रव करैक आ सासुकेँ शंका होइक। एक दिन किछु लिखैत देखि लेला पर यशोदाकेँ सासु दुरगंजन कए छोड़ल। अपन अस्वस्थता कारणें एक राति नहि जाँति सकल तँ सासु तूरपीन भए गेलथिन्ह। दुरागमनक तीन वर्ष बीतलोपर कल्याणक योग्यता नहि देखि, सासु बाँझ आदि शब्दसँ सम्बोधन करै लगथिन्ह। बेटाकेँ दोसर विवाहक लेल मनाबय लगलीह। यशोदाकेँ जखन पुत्र होइछ तँ परिवारमे प्रसन्नता अबैछ। पौत्र पाबि अनूपरानी गद्गद् भए जाइत छथि। किन्तु, यशोदाक प्रति व्यवहार नरम नहि होइत छनि। दुखित पड़ला पर दवाइ उपचार आदिक व्यवस्था नहि होमय दैत छथिन। सीतानाथकेँ बजाओल जाइत छनि। उपचार होइत छनि। यशोदा नीके होइत अछि।
‘‘निर्दयी सासु’’क रचनाकालमे सुधारवादी आन्दोलन चरम पर छल। आ तकर स्पष्ट प्रभाव ‘‘निर्दयी सासु’’ मे अछि। ज्योतिषी चिन्तामणि झाक अवतारणा ओही आन्दोलनक परिणाम थिक। यशोदाकेँ शिक्षित करब, स्त्री- शिक्षाक महत्त्वक प्रतिपादन थिक। हरिसिंह देवी भूत समाजकेँ कोलाकोलामे बंटने जाइत छल, जाहिसँ कतेको प्रकारक सामाजिक कुरीति पसरि रहल छलैक। ओहि कुरीतिकेँ रोकबा लेल जनसीदनजी घटकसँ कहबाओल अछि…’हरिसिंह देवी कतय लेने फिरै छी, कन्या जाहिसँ सुखमे रहय से कर्त्तव्य थिक।’ एहि उक्तिमे हरिसिंह देवी व्यवस्थाक विरोध तँ अछि। घटकक आन्तरिक इच्छा- ‘‘हमर मेहनति मोन राखब’’-अत्यन्त सहज रूपमे व्यक्त भए गेल अछि।
‘‘निर्दयी सासु’’क कथा वस्तुक निर्माण सामाजिक घटनाक आधारपर संयोजित अछि। एहि घटनाक चित्रण ततेक कौशलपूर्ण अछि जे समक्षहिमे घटित होइत प्रतीत होइछ। तात्पर्य जे स्वाभाविकता एवं विश्वसनीयताक निर्वाह सर्वत्र अछि। कन्यादानक लेल पिताक फिफिआएब, पाँजिक रक्षाक चिन्ता, कन्याक सुख-सुविधाक चिन्ताक बीच झुलैत कन्यागतक मन स्थिति, बेटाकेँ विवाहमे पर्याप्त चीज-वस्तु नहि भेटलापर वरक माइक खौंझायब, सासु द्वारा पुतहुक पुरखाकेँ उकटब आदि स्थितिक चित्रण कुशलता एवं प्रभावक शैलीमे अछि। गाममे हकार पड़ल अछि। गीतहारि सभ जूमि रहलीह अछि। एहि कालक स्थितिक चित्रणक स्वाभाविकता एवं सजीवता देखनुक अछि- ‘‘दू घड़ीक बाद एकाएकी सभ जमा होमय लगलीह। आबय मे जनिका विलम्ब भेलनि, हुनका ओतए झोटहा पेआदा छूटलि, पकड़ि अनलक। कतेक कालधरि हँसी मसखरी भेल। सीतानाथक माइकेँ ननदिक डहकन, कते कोन ठेकान नहि रखलकैन्हि। ओहो कियेक चुकितीह। जे फुरलैन्हि, तानि कय-कय सत्कार लोकक कयलथिन्ह।’’
‘‘निर्दयी सासु’’ स्त्री-प्रधन रचना थिक। अनूपरानीक चारूकात घटना-चक्र घुमैत रहैछ। अनूपरानीक अतिरिक्त आओरो पाँच नारी पात्र छथि -यशोदा, यशोदाक माय, सीतानाथक पीसी, सीतानाथक बहिनि आ विधिकरी। पुरुष पात्रमे ज्योतिषी चिन्तामणि झा, लक्ष्मीदत्त झा, घटक घूटर झा, अयोध्यानाथ मिश्र, सीतानाथ मिश्र आ खब्बास आदि।
अनूपरानीक चित्रण क्रूर आ चिड़चिड़ाहि सासुक रूपमे भेल अछि। पति आ पुत्रपर पूर्ण अधिकार छनि। अनूपरानीक मनक इच्छाक प्रतिकूल ककरो कल्ला नहि अलगि सकैत छैक। समधिऔरसँ खूब चीज-वस्तु आबय तकर उत्कट इच्छा छनि। अपूर्ण मनोकामनाक जनित समस्त रोष आ तामसक केन्द्र यशोदाकेँ बना लैत छथि। पढ़बा-लिखबासँ जन्मी शत्रुता छनि। बेटा-पुतहुक मेल अखरैत छनि। बेटाक सासुर जाएबकेँ, कनिञाक वशीभूत भए जाएब मानैत छथि। ज्योतिषीजी द्वारा यशोदाकेँ देल गेल गहनामे बेटाक कमाइक शंका होइत छनि। सन्तानमे विलम्ब भेलाक कारणें पुतहुकेँ बाँझ-चूड़ैन आदि कहि, दोसर विवाहक लेल बेटाकेँ मनबैत छथि। यशोदाक मृत्युक कामना छनि, तेँऔषधि आदिक व्यवस्थामे विलम्ब करबैत अछि। पौत्रक जन्म भेलहुपर पुतहुक प्रति क्रूर भावनामे नरमी नहि अबैत अछि। यशोदाक ननदि सेहो माइए पर गेलि अछि। लूत्ती लगएबामे पारंगत अछि। अयोध्यानाथ मिश्रक बहिनिक क्षणिक उपस्थितिसँ रोचकता आबि गेल अछि। विधिकरीक चरित्र-चित्रणमे सेहो स्वाभाविकता अछि। दोसर दिस ज्योतिषीजीक पत्नी कन्या आ जमायक हित चिन्तामे सदिखन लागल रहैछ। अपन आन कोनो सन्तान नहि, तेँ आकर्षण आ ममत्वक केन्द्र जमाइये छथिन्ह। सामर्थ्य भरि भार सांठबामे कोताही नहि करैत छथि। किन्तु सभसँ भिन्न स्थिति अछि यशोदाक। सम्पूर्ण ‘‘निर्दयी सासु’’ मे यशोदा एको शब्द नहि बजैत अछि। सासु आ ननदिक यातना मूक बनि सहैत रहैछ। पढ़बा लिखबाक सौख छैक। किन्तु, सासु आ ननदि मिलि प्रतिबन्ध लगा देने छथिन। यशोदा खटैत अछि, अनुभव करैत अछि किन्तु अपन मुँह नहि खोलैत अछि। यशोदाक चरित्र- निर्माणमे उपन्यासकार धैर्य आ साहसक स्रोत भरि देल अछि।
पुरुष पात्रमे प्रमुख छथि ज्योतिषी चिन्तामणि झा। समाज सुधारक प्रति सजग छथि। हिनक ई सजगता वैचारिके नहि, कार्यरूपमे प्रकट होइत अछि। स्त्री-शिक्षाक महत्वक प्रति सजग छथि। कन्याक सुख सुविधाक लेल हरिसिंह देवी भूतकेँ झाड़ि लैत छथि। हिनक पिसिऔत लक्ष्मीदत्त झाक चित्रण एक पुरानपंथीक रूपमे अछि। घटकक चरित्रांकन विलक्षण अछि। हिनके विचारक कार्यान्वयन कए ज्योतिषी सामाजिक कुरीतिकेँ तोड़बामे सफल होइत छथि। अयोध्यानाथ मिश्र एक ततेक शुद्ध लोक छथि जे पत्नीक प्रकृतिसँ परिचित भइओ कए मौनव्रत भंग नहि करैत छथि। सएह हाल सीतानाथक अछि। यद्यपि पढ़ल-लिखल छथि, पत्नी पर होइत अत्याचारसँ परिचित छथि। किन्तु, माइक प्रतिकूल एको शब्द बाजि नहि पबैत छथि। मुदा अतेक धरि अवश्य करैत छथि जे माइक चढ़ौलो पर दोसर विवाह लेल तैयार नहि होइत छथि। चरित्रक ई गाम्भीर्य आ एक पत्नीक अछैतो दोसर विवाह नहि करबाक आन्तरिक निर्णय विशेष महत्वक अछि।
औपन्यासिकताक दृष्टिसँ ‘‘निर्दयी सासु’’क अध्ययन कएला पर ओ झुझुआन लगैत अछि। एहिमे औपन्यासिक विविधताक अभाव अछि। किन्तु रचना ओहि समयक थिक जखन मैथिलीमे उपन्यास लिखबाक प्रति जागृति नहि आएल छलैक। एहि विधाक परिचय मैथिली जगतकेँ बड़ कम छलैक। आ तें जेना चन्द्रलोक पर पड़ल पहिल मानव अन्तरिक्ष यात्री आर्मस्ट्रांगक डेग महत्वपूर्ण अछि, ओहिना मैथिली उपन्यासक इतिहासमे जनसीदनजीक ‘‘निर्दयी सासुक’’ महत्व अछि।
निर्दयी-सासु आ रामेश्वर
जनसीदनजीक ‘‘निर्दयी सासु’’ धारावाहिक रूपमे प्रकाशित मैथिलीक प्रथम उपन्यास थिक तँ पं. जीवछ मिश्रक ‘‘रामेश्वर’’ मैथिलीक प्रथम पुस्तकाकार उपन्यास अछि। दुनू रचनाकार हिन्दीमे चर्चित भए, मैथिलीमे आएल छलाह। दुनूक उपन्यासक रचनाकालो प्रायः समाने अछि। ‘‘निर्दयी सासु’’ (1914)क अन्तमे प्रकाशित भेल तथा ‘‘रामेश्वर’’ 1916ई. मे पुस्तकाकार। ‘‘रामेश्वर’’ लिखतहिं पुस्तकाकार भए गेल होएत तकर सम्भावना कम अछि। जखन मैथिलीकेँ आइयो ओहन सुविधा प्राप्त नहि छैक तखन ओहि समयमे रहल होयत, तकर कोन सम्भावना अछि? तेँ इहो सम्भव अछि जे ‘‘रामेश्वर’’ पुस्तकाकार होएबा लेल प्रेसक प्रतीक्षामे होअए। एहना स्थितिमे पहिने ककर रचना भेल से निर्णीत नहि भए सकैछ। जे से, दुनू कृति मैथिलीक आरम्भिक उपन्यास थिक। जाहिठामसँ बाट चलि मैथिली उपन्यास वर्तमान युग धरि पहुँचि सकल अछि।
दुनू उपन्यासकार एकहि युगमे छलाह। किन्तु दृष्टिकोणमे अन्तर अछि। ‘‘निर्दयी सासु’’ वैवाहिक समस्यापर अछि। किन्तु ‘‘रामेश्वर’’क समस्या शोषण आ भूखक थिक। ई शोषण आर्थिक आ सामाजिक दुनू प्रकार अछि। पिताक श्राद्धमे रामेश्वर घर-आङन बेचि, साकिन भए जाइत अछि। परिवारक पालनक हेतु अनिच्छापूर्वक अपराध वृति अपना लैत अछि, डकैती करैत अछि। सम्पन्न व्यक्तिकेँ लूटैछ आ अन्तमे हृदय परिवर्तन होइत छैक। पाशविक प्रवृत्ति पर मानवीय प्रवृतिक विजय पताका फहराइछ।
‘‘निर्दयी सासु’’मे औपन्यासिकताक अभाव खटकैछ। जखनि ‘‘रामेश्वर’’ मे औपन्यासिक विविधता अछि। घटना-संयोजन आ चरित्रमे विविधता अछि। विभिन्न सन्दर्भ आ घटनाक प्रवाह पाठककेँ अन्तधरि परिणतिक भान नहि होमए दैछ। किन्तु ‘‘निर्दयी सासु’’क प्रारंभहि अन्तक संकेत दए दैछ। ‘‘रामेश्वर’’क घटना सभ पाठककेँ बन्हने रहैछ, तँ ‘‘निर्दयी सासुक’’ भाषा आ परिचित स्थितिक वर्णन। मुदा, जेना कोनो घटना अथवा छोटसँ छोट स्थितिक चित्रण ‘‘निर्दयी सासु’’मे भेटैछ से ‘‘रामेश्वर’’मे नहि अछि। ‘‘निर्दयी सासु’’मे आएल पात्र सभक व्यक्तित्व निरूपण सोझ- साझ अछि, पात्रक मानसिक स्थितिक आ जटिलताक चित्रण नहि भए सकल अछि। किन्तु ‘‘रामेश्वर’’मे मानसिक द्वन्द्व आ संघर्ष पर वेश प्रकाश पड़ल अछि। दूनू उपन्यासकारक भाषामे सेहो अन्तर अछि। ‘‘निर्दयी सासुमे’’ फुदकैत भाषाक प्रयोग अछि, जे अत्यन्त स्वाभाविक अछि। ओहन फुदकैत भाषाक अभाव ‘‘रामेश्वर’’मे अछि।
जनसीदनजीक युग आ व्यक्तित्व- जनसीदनजीक जखन रचना दिस प्रवृत्त भेलाह, विदेशी शासनक विरोधक सक्रियता सर्वत्र व्याप्त छल। ओ सक्रियता प्रकट आ सुप्त दुनू प्रकारक छल। केओ धन आ मनसँ संग छलाह तँ केओ तन-मन आ धन – तीनूक संग। युगसचेत साहित्यकार जन मानसक ओहि आगिकेँ फल प्राप्ति धरि प्रज्ज्वलित रखबा लेल रचनात्मक सहयोग करैत छलाह। ई सहयोग प्रच्छन्न आ प्रतीकात्मक दुनू प्रकारक होइत छल। बंगला साहित्यमे ‘‘आनन्द मठ’’ सन क्रान्तिकारी उपन्यास लिखा गेल छल। हिन्दी साहित्यमे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ‘‘भारत दुर्दशा’’ आदि तथा मैथिली शरण गुप्तक ‘‘भारत भारती’’क खूब प्रचार-प्रसार भए गेल छल। मैथिलीमे कवीश्वर चन्दा झा अङरेजी शासनक विसंगति आ अन्यायक विरोधमे लिखि गेल छलाह। जनसीदन जीक समकालीन कवि मुंशी रघुनन्दन दास, यदुनाथ झा ‘‘युदवर’’ आदि स्वाधीनता संग्रामक अनुकूल रचना कए, जनमानसकेँ प्रेरित कए रहल छलाह। किन्तु, बंगला, हिन्दी तथा मैथिलीक साहित्यिक गतिविधिसँ परिचित साहित्यकार जनार्दन झा ‘‘जनसीदन’’ ओहिसँ सर्वथा अप्रभावित रहलाह। तात्पर्य जे राष्ट्रपिता बापूक नेतृत्वमे विदेशी शासन-व्यवस्थाकेँ छाउर करबा लेल जेना चारूकात आगि धधकि रहल छल, तकर कनिको उष्णता जनसीदनजीक रचनामे नहि भेटैत अछि।
ई सत्य जे प्रत्येक साहित्यकारक संवेदनाक क्षेत्र भिन्न होइछ। अनुभूतिक क्षेत्र फराक होइछ। कोन घटना आ परिस्थिति कतेक दूर धरि आ कोना ग्रहण करैछ, से रचनाकारक संवेदनशीलता आ मानसिकता पर निर्भर करैछ। किन्तु, किछु घटना आ स्थिति तेहन अवश्य होइछ, जकर प्रभाव-क्षेत्रसँ फराक रहि जाएब, युग-सचेत रचनाकारक लेल सर्वथा असम्भव अछि। तथापि जँ कोनो स्थिति अथवा घटना कतहुसँ प्रभावित नहि कए पबैछ तँ ई मानि लेबाक चाही जे कोनो ने कोनो व्यक्तिगत कारणें ओहि दिस ओ प्रवृत्ति नहि भेल होएताह। एहना स्थितिमे रचनाकारक व्यक्तित्वक विश्लेषण आवश्यक भए जाइछ, सम्पर्क आ सानिध्यकेँ बूझब आवश्यक भए जाइछ।
ई सर्वज्ञात अछि जे जनसीदनजीक पालन पोषण मातृकमे भेल छलनि। हिनक मातामह एक प्रभावशाली जमीन्दार छलाह। पैघ भेला पर जनीसीदनजीक सम्पर्क पैघ-पैघ राज दरबारसँ भेलनि। ओहिठाम हिनक सम्मान होइत छल। ओहिकालमे राजा-महाराज अथवा जमीन्दार अपन प्रभु अङरेज सरकारक प्रति कतेक दासोदास रहैत छलाह, से छपित नहि अछि। जनसीदनजीक रचनाकार ओहि फँदाकेँ तोड़ि छिन्न-भिन्न नहि कए सकल। आ प्रायः तेँ अङरेजी शासन-व्यवस्थाकेँ भस्मीभूत करबा लेल एकोटा काठी जनसीदनजी नहि जुटा सकलाह। जनसीदनजीक कविता -‘‘श्रीमान् भारत सम्राट का स्वागताष्टक’’ हमर एहि निष्कर्षमे सहायक भेल अछि।
“जय ब्रिटिश नायक जार्ज पंचम भारताधिपभूपति
जय श्रीमती मेरी महरानी दयामती सुव्रते
हम भारतीय प्रजा सभ स्वागत मनावे आपके।।”
आ एही सिद्धान्तक अनुकूल जनसीदनजीक ओही प्रजाकेँ सुप्रजा मानल जे शोषण तथा अत्याचारक वर्षामे भीजलोपर राजक विरोध नहि करैछ-
“प्रजा प्रशंसा योग्य वैह जे करथि न राज विरोध
राजा रूष्ट्रो होथि कदाचित प्रजा करथि नहि क्रोध।”
जनसीदनजीक सान्निध्य आ एहि प्रकारक रचना सभकेँ देखि स्पष्ट भए जाइछ जे जनसीदनजीक व्यक्तित्वमे ओ प्रखरता नहि छल जाहिसँ शासन-व्यवस्थाक विरोधमे ठाढ़ भए सकथि। आ तेँ जनसीदनजी अपन सम्पर्क एवं सान्निध्यकेँ ध्यानमे रखैत साहित्य सर्जना लेल सामाजिक क्षेत्रकेँ अपनाओल। ओहीपर कलम उठाओल।
ई तँ देशक समसामयिक राष्ट्रीय चेतनाकेँ ध्यानमे राखि जनसीदन जीक व्यक्तित्वक मूल्यांकन भेल। जँ सामाजिक आ सुधारवादी चेतनाकेँ ध्यानमे राखि जनसीदनजीक उपलब्ध साहित्यक माध्यमसँ व्यक्तित्वक विश्लेषण करैत छी तँ व्यक्तित्व प्रखर भेटैत अछि। सामाजिक विकृतिकेँ दूर करबा लेल तत्पर छथि। जे सामाजिक व्यवस्था मिथिलाक समाजकेँ कोला-कोलामे बांटि शोषण करैत छल, तकर विरोधमे शंखनाद करैत पबैत छी। उपन्यासकारक प्रखर सामाजिक चेतनाक ई प्रतिफल थिक जे घोर मानसिक संघर्षक वाद ज्योतिषी चिन्तामणि झा ओहि परिपाटीक विरोधमे कन्यादान करैत छथि जे मिथिलाक सामाजिक जीवनमे विभेद उत्पन्न करबाक हेतु ठाढ़ कएल गेल छल।
(मि.मि. जून 1982)